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असंवेदनशीलता की हद

आपका पन्ना
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पुलिस, यह शब्द सुनकर आपके दिमाग में क्या छवि बनती है? जहां तक मुझे लगता है, अच्छी बनने के आसार तो न्यूनतम ही होंगे। वैसे अगर आपने कुछ वर्षों पहले आई फिल्म गोलमाल देखी हो तो उसमें तुषार कपूर (जो फिल्म में एक गूंगे शख्स की भूमिका में हैं) बड़ी ही रोचकता तथा सरलता से पुलिस वाले के आने का संदेश देते हैं। खैर, विषयांतर होना ठीक नहीं है। हाल ही में पुलिस की असंवेदनशीलता के दो कारनामे सुनने और पढ़ने को मिले। हालांकि पुलिस वालों के पक्ष में अच्छा सुनने को तो कान तरसते ही रहते हैं। यहां मामला हमारे देश के हृदय स्थल मध्य प्रदेश का है। तीन दिनों पहले प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे शहर सीहोर में एक हृदयविदारक घटना घटी। एक दबंग शख्स ने एक व्यक्ति की जान फिल्मी गुंडे की तरह ले ली और पुलिस हमेशा की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

इससे भी ज्यादा दुखदायी तो यह है कि यह घटना सरे बाजार, सरे राह हो रही थी और लोग यह तमाशा देख रहे थे, क्योंकि मरने वाला उनका कुछ नहीं लगता था। मामला यह है कि सीहोर का एक नामी गुंडा एक शख्स को अपनी कार के पीछे बांधकर तब तक पूरे शहर की सड़कों पर घसीटता रहा, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। पुलिसिया बेशर्मी की हद यह कि, सब कुछ पता होने के बावजूद आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया।

मामला भोपाल पहुंचा, तो अमला क्रियाशील होता प्रतीत हुआ। हैरत तो तब हुई जब भोपाल रेंज (सीहोर भी इसी के अंतर्गत आता है) के आईजी ने कहा कि आरोपी पुलिस की हिरासत में है, जबकि सीहोर के पुलिस कप्तान का बयान ठीक उनके उलट है। एसपी का कहना है कि आरोपी की तलाश जारी है और उसकी खबर देने वाले को पुलिस की तरफ से पांच हजार रुपए का नगद ईनाम भी दिया जाएगा।

अब बताइए, इसे क्या कहेंगे। एक तरफ तो सरकार सुशासन का दावा करती है और दूसरी तरफ राजधानी के पड़ोस में ही दिन दहाड़े ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनसे जनता का भरोसा कानून व्यवस्था से उठते देर नहीं लगेगी। रही बात नेताओं की तो वो पूरी बेशर्मी से मुस्तैदी का दावा करते हैं। पुलिस वाले तो उनके गुलाम हैं ही।

अब दूसरी घटना भी इससे कहीं कम नहीं है। इस बार भी मामला प्रदेश के ही पिपरिया जिले का है। यहां पुलिसिया बर्बरता के चलते एक महिला को अपने गर्भ के पल रहे बच्चों की जान से हाथ धोना पड़ा। घटना कुछ इस तरह है। पिपरिया की रहने वाली अनुराधा पर दहेज प्रताड़ना तथा हत्या मे साथी होने का आरोप है। अदालत ने जिस समय उसे सजा सुनाई, उस वक्त उसके पेट में छह माह का गर्भ था। पुलिस वालों ने इस बात को अनेदखा करते हुए उसे जीप से ही होशंगाबाद जेल ले जाना तय किया। जीप को पथरीले रास्ते पर भी फर्राटे से दौड़ाते रहे। नतीजा अनुराधा के पेट में दर्द होने लगा। काफी मनौतियों के बाद भी पुलिसवालों ने जीप की गति को धीमा नहीं किया। जेल पहुंचने के बाद भी अनुराधा की मेडिकल जांच नहीं करवाई गई। बाद में जेल के अस्पताल में जांच के दौरान उसने अपनी तकलीफ के बारे में बताया, जिसके बाद उसे अस्पताल ले जाने की तैयारी की गई, हालांकि इसमें भी जल्दबाजी नहीं की गई। नतीजा अस्पताल पहुंचते तक मामला हाथ से निकल चुका था।

असंवेदनशीलता की हद तो यह कि जब भोपाल के सुल्तानिया अस्पताल के डॉक्टरों ने अनुराधा को भर्ती करने के लिए कहा, तो जेल के गार्ड ने यह यह कहते हुए मना कर दिया कि उसे सिर्फ जांच के लिए लाया गया है। जेल पहुंचकर की गई घंटो लंबी कागजी कार्रवाई के बाद अनुराधा को दोबारा अस्पताल ले जाकर भर्ती कराया गया। लेकिन जब डिलीवरी हुई तो दो मृत शिशुओं को बाहर निकाला गया।

यह घटना निश्चय ही हृदय विदारक तो है ही साथ ही असंवेदनशीलता की चरमसीमा है। कानून व्यवस्था नागरिको के सहयोग और सुविधा के लिए होता है या उन्हें परेशान करने के लिए। इस तरह की घटनाओं से यह तो सिद्ध होता है कि मध्यप्रदेश पुलिस अपना ध्येय वाक्य “देशभक्ति जनसेवा” भूल चुकी है साथ ही प्रदेश की सरकार जो महिलाओं के उत्थान, सुरक्षा और हक की बात करती है वो भी दोगली है।

इस तरह की व्यवस्था से वाकई दिलो-दिमाग को ठेस तो पहुंचती ही है व्यवस्था से भरोसा भी डगमगा जाने के लिए मजबूर हो जाता है।

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